क्या आप जानते हैं की पानी कैसे आया पढ़ें पानी की कहानी - Story Of Water
मै आगे बढ़ा ही था कि बेर की झाड़ी पर से मोती सी एक बूँद मेरे हाथ पर आ पड़ी। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि ओस की बून्द मेरी कलाई पर से सरककर हथेली पर आ गई। मेरी दृष्टि पड़ते ही वह ठहर गई। थोड़ी देर में सितार के तारो की सी झंकार सुनाई देने लगी। मैंने सोचा की कोई बजा रहा होगा। चारो ओर देखा। कोई नहीं। फिर अनुभव हुआ की यह स्वर मेरी हथेली से निकल रहा था। धयान से देखने पर मालूम हुआ कि बूँद के दो कण हो गए है और वे दोनों हिल हिलकर यह स्वर उत्पन्न कर रहे है मनो बोल रहे हो।
उसी सुरीली आवाज में मैंने सुना "सुनो सुना....."
मै चुप था।
फिर आवाज आइ "सुनो,सुनो।"
अब मुझसे न रहा गया। मेरे मुख से निकल गया "कहो ,कहो। "
ओस की बून्द मनो प्रशंसा से हिला और बोली "मई ओस हूँ। "
"जनता हूँ "मैंने कहा। "लोग मुझे पानी कहते है,जल भी। "
"मालूम है। "
"मैं बेर के पेड़ में से आइ हूँ। "
"झूठी ,"मैंने कहा और सोचा बेर के पेड़ से क्या पानी का फवारा निकलता है ?
बून्द फिर हिली। मनो मेरे अविष्वास से उसे दुःख हुआ हो।
"सुनो। मैं इस पेड़ के पास की भूमि में बहुत दिनों से इधर उधर घूम रही थी। मैं कणो का ह्रिदय टटोलती फिरती थी की एकाएक पकड़ी गई। "
"कैसे ", मैंने पूछा।
"वह जो पेड़ तुम देखते हो न ! वह ऊपर ही इतना बड़ा नहीं है , पृथ्वी में भी लगभग इतना ही बड़ा है। उसकी बड़ी जड़े , छोटी जड़े और जडों के रोये हैं। वे रोये बड़े निर्दयी होते है। मुझे जैसे असंख्य जल कानो को वे बलपूर्वक पृथ्वी में से खींच लेते है। कुछ को तो पेड़ एकदम खा जाते है और अधिकांश का सबकुछ छीनकर उनेह बाहर निकाल देते हैं।
क्रोध और घृणा से उसका शरीर काँप उठा।
" तुम क्या समझते हो की वे इतने बड़े यो ही खड़े है। उन्हे इतना बड़ा बनाने के लिए मेरे असंख्य बंधुओं ने प्राण नाश किये है। " मई बड़े ध्यान से उसकी कहानी सुन रहा था।
"हाँ , तो मई भूमि के खणिजे को अपने शरीर में घुलकर आनंद से फिर रही थी की दुर्भग्य एक रोये से खींच ली गई।
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" मैं काँपी। दूर भागने का प्रयत्न किया परन्तु वे पकड़कर छोड़ना नहीं जानते। में रोएँ में खिंच ली गयी। "फिर क्या हुआ ?" - मैंने पूछा। मेरी उत्सुकता बढ़ चली थी।
" फिर एक कोठरी में बंद कर दी गई। थोड़ी देर बाद ऐसा जान पड़ा की कोई मुझे पीछे से धक्का दे रहा है और मनो कोई हाथ पकड़ कर आगे को खींच रहा। हो। मेरा एक भाई भी वहां लाया गया। उसके लिए स्थान बनाने के कारण मुझे दबाया जा रहा था। आगे एक और बून्द मेरा हाथ पकड़कर ऊपर खिंच रही थी। मै उन दोनों के बिच पीस चली। "
"मै लगभग तीन दिन तक यह साँसत भोगती रही। मई पत्तो के नन्हे -नन्हे छेड़े से होकर जैसे - तैसे जान बचाकर भागी। मैंने सोचा था की पत्ते पर पहुँचते ही उड़ जाउंगी। परन्तु बहार निकलने पर ज्ञात हुआ की रत होने वाली थी और सूर्य जो हमें उड़ने की शक्ति देते हैं जा चुके हैं ,और वायुमण्डल में इतने जल कण उड़ रहे हैं की मेरे लिए वखान स्थान नहीं है ,तो मई अपने भाग्य पर भरोसा करके पत्तो पर ही सिकुड़ गयी। अभी जब तुम्हे देखा तो जान में जान आयी और रक्षा पाने के लिए तुम्हारे हाथ पर कूद पड़ी। "
इस दुःख तथा भावपूर्ण कहनी का मुझ पर बड़ा प्रभाव पड़ा। मैंने कहा -म "जब तक तुम मेरे पास हो कोई पत्ता तुम्हे छू नहीं सकेगा। "
"भैया ,तुम्हे इसके लिए धन्यवाद् है। मई जब तक सूर्य न निकले तभी रक्षा चाहती हूँ। उनका दर्शन करते ही मुझमे उड़ने की शक्ति आ जाएगी। मेरा जीवन विचित्र घटनाओं से परिपूर्ण है। मैं उसकी कहानी तुम्हे सुनाऊँगी ,तो तुम्हारा तुंहारा हाथ तनिक भी नहीं दुखेगा। "
" अच्छा सुनाओ। "
"बहुत दिन हुआ , मेरे पुरखे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन नामक दो गैस सूर्यमण्डल में लपटों के विद्यमान थी। "
"सूर्यमण्डल अपने निशिचित मार्ग पर चक्कर काट रहा था। वे जब हमारे ब्रमांड में उथल पुथल हो रही थी। अनेक ग्रह और उपग्रह बन रहे थे। "
"ठहरो , क्या तुम्हारे पुरखे अब सुयरामण्डल में नहीं है ?
"है , उनके वंशज अपनी भवावह लपटों से अब भी उनका मुख उज्वल किये हुऐ है। हाँ , तो मेरे पुखे बड़ी प्रसंसा से सूर्य के धरातल पर नाचते रहते थे। या दिन की बात है की दूर या प्रचंड प्रकाश पिंड दिखाए पड़ा। उनकी आँखे चौंधियाने लगी। यह पिंड बड़ी तेजी से सूर्य की और बढ़ रहा था। ज्यों ज्यों पास अत जाता था , उसका आकर बढ़ता जाता था। यह सूर्य से लाखो गुना बढ़ा था। आकर्षण शक्ति के कारन सूर्य का एअक भाग टूटकर उसके पीछे चला। सूर्य से टुटा हुआ भाग इतना भारी खिंचवा संभाल न सका और कई टुकड़े में टूट गया। उन्ही में से एक टुकड़ा हमारी पृथ्वी है। यह प्राम्भा में एक बड़ा आग का गोली थी। "
"ऐसा ? परन्तु उन लपटों से तुम पानी कैसे बनी ?"
"मुझे ठीक पता नहीं। हाँ यह सही है की हमारा ग्रह ठंडा होता चला गया और मुझे यद है की मई अरबो वर्ष पहले हाइड्रोजन और ऑक्सीजन की रासायनिक क्रिया के कारन उत्पन्न हुई हूँ। . में मिलकर अपना प्रत्यक्ष अस्तित्व गँवा है और मुझे उत्पन्न किया है। मैं उन दिनों भाप के रूप में पृथ्वी के चारो ओर घूमती फिरती थी। उसके बाद न जाने क्या हुआ ? जब मुझे होश आया खुद को ठोस बर्फ के रूप में पाया। मेरा भाप शरीर पहले भाप के रूप में था अत्यंत छोटा हो गया था। वह पहले से कोई सत्रहवाँ भाग रह गया था। मैंने देखा मेरे चारो और असंख्य साथी बर्फ बने पड़े थे। जहाँ तक दृष्टि जाती थी बर्फ के अलावा कुछ नजर नहीं आता था। जिस समय हमारे ऊपर सूर्य की किरणे पड़ती तो सौंदर्य बिखर जाता था। हमरेर कुछ साथी ऐसे भी थे आंधी में ऊँचा उड़ने ,उछलने कूदने के लिए कमर कसे रहते थे।
"बड़े आनंद का समय रहा होगा वहां। "
" बड़े आनंद का "
' कितने दिनों तह ?"" कई लाख वर्षो तक। "
" कई लाख "
" हाँ , चौको नहीं। मेरे जीवन में सौ दो सौ वर्ष दाल में नमक के बराबर (बहुत में थोड़ा। ) भी नहीं है। "
मैंने ऐसे दीर्घजीवी से वार्तालाप करते जान अपने को धन्य माना और ओस के बून्द के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ चली।
" हम शांति से बैठे हवा से खेलने की कहानियां सुन रहे थे अचानक ऐसा की मनो हम सरक हो। सबके मुख पर हवाइयां उड़ने लगी अब क्या होगा ?
इतने दिन आनंद से काटने के बाद अब हममे दुःख शाहन करने का साहस नहीं था। बहुत पता मालूम हुआ की हमारे भर से ही हमारे निचे वाले भाई दबकर पानी हो गए हैं। शरीर ठोस पन को छोड़ चला है और उनके तरल शरीर पर हम फिसल चलें हैं।
मैंकई मास समुन्द्र में इधर उधर घूमती रही और एक दिन गर्म धारा से भेंट हो गयी। धरा के जलते अस्तितव को ठंढक पहुँचाने के लिए हमने उसकी गर्मी सोखनी प्रारम्भ की फलसवरूप मैं पिघल कर समुन्द्र में मिल गयी।
दृश्य देखा वह वर्णनातीत है। मैं समुन्द्र में केवल मेरे बंधू और बांधवों का ही राज्य है ,परन्तु अब ज्ञात हुआ की समुन्द्र में चहल पहल वास्तव में दूसरे ही जीवों की है और उसमे नीरा नमक भरा हैं। पहले पहल समुन्द्र का खारापन मुझे नहीं भाया। जी मिचलाने लगा पर धीरे धीरे सब सहन हो चला।
एक दिन मेरे जी में आया की मैं समुन्द्र के ऊपर तो बहुत घूम चुकी हूँ ,भीतर वचालकर भी देखना चाहिएकी क्या है ?इस कार्य के लिए मैं गहराई में जाना प्रारम्भ किया।
मार्ग में मैं विचित्र विचित्र चीज देखे। मैंने अत्यंत धीमे धीमे रेंगने वाले घोंघे ,जालीदार मछलियां ,कई कई मन भरी कछुए और मछलियां देखि।
एक मछली ऐसी देखि जो मनुष्य से कई गुना लम्बी थी। उसके आठ हाथ थे। वह इन हाथो से अपने लेती थी।
मैं और गहराई की खोज में किनारो से दूर गई, तो मैंने एक ऐसी चीज देखि की मैं चौक गयी। अब तक समुन्द्र में अँधेरा था ,सूर्य का प्रकाश कुछ हीं भीतर तक आ पाता था। और बल लगाकर देखने के कारन मेरे नेत्र दुखने लगे थे। मैं सोच रही थी की यहाँ पर जीवों को कैसे दिखाई पड़ता होगा ऐसा जीव दिखाई पड़ा की मनो लालटेन लेकर घूम रहा हो। यह एक अत्यंत सुंदर मछली शरीर से एक चमक निकलती थी। जो इसे मार्ग दिखलाती थी। इसका प्रकाश देखकर कई छोटी छोटी मछलियाँ इसके पास आ जाती थी और यह जब भूखी होती थी तो पेट भर उनका भोजन करती थी। "
"जब मैं और निचे समुन्द्र ताल की पहुंची ,तो देखा वहां भी जंगल है। छोटे ठिगने,मोठे पतों वाले पेड़ बहुतायत में उगे हुए हैं। वहां पर पहाड़ियां है घाटियां हैं। इन पहाड़ियों की गुफाओं में नमन प्रकार के जिव रहते हैज जो निपट अंधे और महा आलसी हैं।
यह असंभव है। मेरे ऊपर पानी की कोई तीन मिल मोती तह थी। मैं भूमि में घुस कर जान बचने की चेस्टा करने लगी। यह मेरे लिए कोई नई बात न थी करोड़ो जल कण इसी भाती अपनी जान बचाते हैं और समुन्द्र का जल निचे धस्ता जाता है।
मैं अपने भाईओं के पीछे पीछे चेतन में घुस गयी। कई वर्षो में कई मिल मोती चट्टान में घुसकर हम पृथ्वी के भीतर एक खोखले स्थान में निकली और एक स्थान पर इकठा होकर हमलोग ने सोचा की क्या करना चाहिए। कुछ की सम्मति में वही पड़ा रहना ठीक था। परन्तु हम में कुछ उत्साहित युवा भी थे। वे एक स्वर में बोले " हम खोज करेंगे ,पृथ्वी के ह्रदय में घूम घूम कर देखेंगे की भीतर क्या छिपा हुआ है। "
"अब हम,सोर मचाते हुए आगे बढे ,तो एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहाँ ठोस वस्तु का नाम भी न था। बड़ी बड़ी चाटने लाल पिली पड़ी थी। और नाना प्रकार की धातुएं इधर उधर बहने को रही थी इसी स्थान के आस पास एक दुर्घटना होते होते बची। हमलोग अपनी इस खोज से इतने प्रसन्न थे की , अंधाधुंध बिना मार्ग देखे बढे जाते थे। इससे अचानक एक ऐसी जगह जा पहुंचे जहाँ तापक्रम बहुत ऊँचा था। यह हमारे लिए असहाय था। हमारे अगुआ कप और देखते देखते उनका शरीर ऑक्सीजन और हाड्रोजन में विभाजित हो गया। इस दुर्घटना से मेरे कान खड़े हो गए। मई अपने और बुद्धिमान साथियों के साथ ओर निकल भागी।
हम लोग अब एक ऎसे स्थान पर पहुँचे जहाँ पृथ्वी का गर्भ रह रहकर हिल रहा रहा था। एक बड़े जोर का धड़ाका हुआ। हम बड़ी तेजी से बहार फेक दिए गये। हम उचे आकाश में उड़ चले। इस दुर्घटना से हम चौक पड़े थे। पीछे देखने से ज्ञात हुआ की पृथ्वी फुट गई है और धुआँ , रेत , पिघली धातुएं तथा लपटे निकल रही हैं। यह दृश्य बड़ा ही शानदार था और इसे देखने की हमे बार बार इच्छा होने लगी। "
"मै समझ गया। तुम जवालामुखी की बात कह रहे। हो। "
"हाँ , तुमलोग उसे जवालामुखी कहते हो। अब जब हम ऊपर पहुंचे, तो हमे एक और भाप का बड़ा दाल मिला। हम गरजकर आपस में मिले और आगे बढ़े। पुरानी सहेली ऑंधी के भी दरसन हुआ। वह हमे पीठ पर लाडे कभी इधर ले जाती कभी उधर। वह दिन बड़े आनंद के थे। हम आकाश में स्वछंद किलोलें करते फिरते थे।
बहुत से भाप जल कणो के मिलने के कारन हम भरी हो चले और निचे झुक आये और एक दिन बूँद बनकर कूद पड़े। "
"मै एक पहाड़ पर गिरी और अपने साथियो के साथ मैली कुचैली हो एक ओर को बह चली। पहाड़ो में एक पत्थर से दूसरे पत्थर पर कूदने और किलकारी मरने में जो आनंद आया वह भुला नहीं जा सकता। हम एक बार बड़े ऊँचे शिखर पर से कूदे और निचे एक चट्टान पर गिरे। बेचारा पैंथर हमारे प्रहार से टूटकर खंड खंड हो गया। यह जो इतनी रेत देखते हो पत्थरो को चबा चबा कर हमहीं बनाते हैं। जिस समय हम मौज में आते हैं ,तो कठोर से कठोर वास्तु हमारा प्रहार सहन नहीं कर सकते।
अपनी विजयों से उन्मत होकर हमलोग इधर उधर बिखर गए। मेरी इच्छा बहुत दिनों से समतल भूमि देखने की थी इसलिए मैं एक छोटी धारा में मिल गयी।
सरिता के वे दिवस बड़े मजे के थे। हम कभी भूमि को काटते ,कभी पेड़ो खोखला कर उन्हें गिरा देते। बहते बहते मैं एक दिन एक नगर के पास पहुंची। मैंने देखा की नदी के तट के ऊपर एक ऊँची मीनार में से कुछ काली काली हवा निकल रही है। मै उत्सुक हो उसे देखंने को क्या बढ़ी की अपने हाथो दुर्भाग्य को न्योता दिया। ज्योंही मैं उसके पास पहुंची अपने और साथियों के साथ एक मोटे नल में खिंच ली गई। भाग्य मेरे साथ था। बस, एक दिन रात के समय में ऐसे स्थान पर पहुंची जहां नल टुटा हुआ था। में तुरंत उसमे होकर निकल भागी और पृथ्वी में समा गयी। अंदर ही अंदर घूमते घूमते इस बेर के पेड़ के पास पहुंची। "
वह रुकी ,सूर्य निकल आये थे।
"बस ?" - मैंने कहा।
"हाँ, मै अब तुम्हारे पास नहीं ठहर सकती। सूर्य निकल आया है। तुम मुझे रोक कर नहीं रख सकते।"
वह ओस की बून्द धीरे धीरे घटी और आँखों से ओझल हो गई।
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